टायफॉइड फीवर क्या है?
आत्रिक ज्वर (Typhoid fever) एक संक्रामक रोग है। इसे आम बोलचाल में ‘मियादी बुखार’ या मोतीझरा भी कहते हैं। ठीक होने में एक निश्चित समय लगने के कारण ही इसे ‘मियादी बुखार’ कहते हैं। कुछ लोगों में पेट में बहुत छोटे-छोटे मोती की तरह सफेद चमकते दाने निकलने के कारण इसे लोग मोतीझला’ भी कहते हैं। आँतों में घाव होने के कारण इसे ‘आंत्रिक ज्वर’ कहते हैं। इसे एंटेरिक फीवर’ भी कहते हैं। कहीं-कहीं इसे सामान्य भाषा में पानी झाला’ कहते हैं। प्राचीन संहिताओं में ‘सन्निपात ज्वर’ नाम से इस रोग का वर्णन मिलता है। यह एक लम्बी अवधि का बुखार है।

Typhoid fever causes
यह रोग ‘साल्मोनिला टाइफी’ नामक जीवाणु से होता है। गंदगी होने पर व सफाई में कमी के कारण ही यह बीमारी फैलती है। मरीज के मलमूत्र में यह जीवाणु निकलते हैं।
जो कि कम तापमान व नमी में बड़ी संख्या में पनपते हैं इन्हें मक्खी, मच्छर खाने के सामान, दूध आदि तक पहुँचा देते हैं वहाँ से खाने के द्वारा मनुष्य की आँत में पहुँचकर पनपते हैं और बीमारी को फैलाते हैं। रोग का प्रसार अधिकतर पाखाने के द्वारा होता है। जो रोगी रोग मुक्त हो जाते हैं उनके पाखाने और मूत्र में इस रोग के कीटाणु महीनों तथा वर्षों तक होते हैं।
यह रोग अधिकतर वयस्कों व बड़े बच्चों तथा किशोरों में होने वाली आम बीमारी है। रोगी का मल-मूत्र इस रोग के संक्रमण के मुख्य स्रोत हैं। वैसे तो यह रोग सारे विश्व में पाया जाता है, पर भारत में यह अपनी अत्यन्त गम्भीर दशा में देखने को मिलता है। पश्चिमी देशों में यह रोग निरन्तर कम होता जा रहा है जिसका मुख्य कारण वहाँ की सुचारू ढंग से जल वितरण व्यवस्था तथा सही ढंग की सैनीटेशन है। सीवर लाइन में किसी तरह का लीकेज हो जाने के कारण भी ये पीने के पानी में आसानी से पहुँच जाते हैं।

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Typhoid fever symptoms
रोग की अवधि 4 से 8 सप्ताह की होती है। पहला सप्ताह-बुखार-धीरे-धीरे ज्वर चढता चला जाता है जो एक सीढ़ीनुमा तरीके से बढ़ता है। इसके बाद इसमें स्थिरता आ जाती है और बुखार 99°F-100°F (39° C-40°C) पर रुक जाता है। कुछ रोगियों को बुखार सर्दी के साथ भी चढ़ता है। अधिकतर रोगियों में ज्वर के साथ शरीर टूटना, बेचैनी, सिर दर्द तथा पेट दर्द के लक्षण भी मिलते हैं। कभी-कभी सिर दर्द पहले प्रकट होता है। प्रारम्भ के दिनों में रोगी को खाने में अरुचि, कब्ज, पेट दर्द, पेट में अफरा आदि होता है। इसके अतिरिक्त सूखी खाँसी, नकसीर (नाक से खून आना), उल्टी, नींद न आना, आलस्य, शिथिलता, ज्वर की तुलना में नाड़ी की धीमी गति आदि प्रमुख लक्षण होते हैं। अक्सर इस रोग में कब्ज रहता है पर बच्चों में दस्त व उल्टी के लक्षण भी देखे जाते हैं। रोगी थका हुआ, असहाय और कमजोर होता है। अक्सर इस रोग में बच्चों का पेट फूल जाता है।
दूसरा सप्ताह-दूसरा सप्ताह शुरू होते ही छोटे-छोटे मोती जैसे लाल रंग के दाने पेट के ऊपरी हिस्से व छाती पर निकल आते हैं। यह दाने दबाने पर गायब जाते हैं। रोगी की जीभ शुष्क व खाँसी हो जाती है। बेचैनी. सुस्ती, पेट फूलना आदि लक्षण भी होते हैं। यकृत व प्लीहा बढ़ जाती है। सीकम के दबाने पर गुडगुड़ाहट भी होती है। ज्वर अधिक होने पर भी नाड़ी की गति कम रहती है। बच्चों में अधिकतर ‘ब्रोन्काइटिस’, व ब्रान्को निमोनिया (Broncho Pneumonia) के लक्षण दीखने लगते हैं।
तीसरा सप्ताह-रोगी के पेट में तेज या हल्का दर्द बना रहता है। उल्टी में या मल में रक्त निकल सकता है। रोगी धीरे-धीरे मूर्छा की अवस्था में चला जाता है अथवा मृत्यु भी हो सकती है।
चौथा सप्ताह-रोगी की हालत में सुधार होने लगता है। ज्वर कम होकर भूख लगने लगती है। पेट का दर्द व अफारा कम हो जाता है। जीभ साफ हो जाती है।..

रोग की पहचान
उपरोक्त लक्षणों के आधार पर रोग निदान में कोई कठिनाई नहीं होती है। प्रथम सप्ताह में रक्त की जाँच कराने पर सफेद कणिकाओं की संख्या कम हो जाती है। ब्लड कल्चर में 70-90% रोगियों के रक्त में जीवाणु मिलता है। दूसरे सप्ताह में ‘विडाल टेस्ट’ कराने पर सामान्य से 4 गुना ज्यादा टाइटर मिलता है। तीसरे सप्ताह में ब्लड कल्चर कराने पर जीवाणु उपस्थित मिलता है।
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नोट– मल की जाँच में पहले और दूसरे सप्ताह में जीवाणु नहीं मिलता है पर तीसरे सप्ताह में जीवाणु मिलता है।
रोग का परिणाम
इस रोग में उपद्रव स्वरूप आँत से रक्तस्राव हो सकता है। रोगी के मल में खून आना शुरू हो जाता है। ऐसे में तापमान एकाएक कम हो जाता है, नाड़ी तेज चलते लगती है।
परफोरेशन (Perforation) भी एक खतरनाक उपद्रव है। इसमें आँत की सारी भित्तियाँ नष्ट हो जाती हैं और आर-पार छिद्र बन जाते हैं। उदरावरण शोथ होकर रोगी की हालत गम्भीर हो जाती है। ऐसे में तुरन्त ऑपरेशन की आवश्यकता होती है नहीं तो रोगी की मृत्यु हो जाती है।