Tropical Eosinophilia

TROPICAL EOSINOPHILIA-उष्ण कटिबन्धीय इओसिनोफीलिया

What is tropical eosinophilia

यह एक संलक्षण (सिन्ड्रोम-Sindrome) है जिसमें खाँसी एवं श्वास कष्ट के साथ रक्त में इओसिनोफीलो की पूर्ण गणना 3000 प्रति cu, mm. से अधिक होती है। यह सलक्षण भारत, श्रीलंका एवं दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में काफी प्रचलित है।

Causes of tropical eosinophilia

इसका कारण अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाया है। अभी तक प्रमाणों के आधार पर यह समझा जाता है कि यह व्याधि पशुओं को अक्रान्त करने वाले फाइलेरिया कृमियों (जैसे-डाइ-फाइलेरिया इमीटीस- Dirofilana immitis) या बुजिया पहान्जी (Brugia pahange) के कारण होती है जो मनुष्य के शरीर में बढ़ नहीं पाते। यह भी सम्भव है कि यह व्याचि मनुष्यों में होने वाली किसी फाइलेरिया (ब्रेनक्रॉफटाई या बुशरेरिया मलेपी) संक्रमण की प्रतिक्रिया के रूप में होती है। इसके लार्वा जब फेफड़ों से होकर गुजरते है तो एक प्रकार की बाहरी प्रतिक्रिया (Foreign body reaction) होती है जिसमें फुफ्फुस ही प्रधानता प्रभावित हो पाते हैं।

Symptoms of tropical eosinophilia

इस रोग के लक्षण श्वसनी दमा (Bronchial Asthma) जैसे होते है। खाँसी एवं कष्ट-श्वास इसके दो प्रमुख लक्षण होते हैं। इसका आरम्भ सूखी खाँसी से होता है लेकिन बाद में बलगम निकलने लगता है जिसमें रक्त के छींटे भी हो सकते हैं। कष्ट श्वास रात को अधिक होता है। मन्द ज्वर होना (99°F से 101 °F). शरीर में दर्द, बेचैनी तथा शारीरिक वजन में कमी होना इसके अन्य लक्षण होते हैं।

बलगम का रंग प्रायः हल्का पीला या पानी की तरह सफेद झागदार होता है। परीक्षण करने पर श्वसन ध्वनि कोष्ठकी होती है जिसका निःश्वसन बढ़ा हुआ होता है। वृक्ष में हर तरफ रॉन्काई एवं क्रेपीटेशन सुनाई पड़ते हैं। श्वेत कोशिका गणना बढ़ी हुई (साधारणतः 12.000 प्रति cumm. से अधिक होती है जिस के साथ इओसिनोफीलो की सम्पूर्ण गणना भी बढ़ी हुई (3000 प्रति cumm. होती है। से अधिक)

यह शिकायत बहुत-सी बीमारियों एवं अवस्थाओं में मिल सकती है। इनमें से कुछ हैं- * विभिन्न तरह की संवेदनशील प्रतिक्रियाओं (एलर्जी) से युक्त बीमारियाँ जैसे-दमा, फीवर, शरीर में ‘चकत्ते निकलना’ एवं ‘त्वचा सम्बन्धी कई बीमारियों, जिनमें खून में ‘इओसिनोफीलिया’ की संख्या बढ़ जाती है।

इसके अलावा ‘इओसिनोफीलिया’ होने का एक प्रमुख कारण कृमि रोग भी है। कृमियों में मुख्य रूप से ‘राउन्डवर्म’ और ‘सिस्टोसोमा’ नामक कृमि से ‘इओसिनोफीलिया’ हो सकता है।

कुछ दवायें लेने से भी ‘इओसिनोफीलिया’ हो जाता है। * यह समझा जाता है कि एलर्जिक रिएक्शन पैदा किये जाने के कारण होता है।

रोग की पहचान

खाँसी, कष्ट श्वास एवं बढ़ी हुई इओसिनोफील गणना के त्रिक के आधार पर इसका निदान किया जाता है। एक्स-रे चित्र की विशिष्टताएँ तथा डाईइथाईल कार्बामाजीन का लाभदायक असर निदान की पुष्टि करने में सहायक होते हैं। पेट के कीड़े व इओसिनोफीलिया के रोगी में पाखाने की जाँच का विशेष महत्त्व है।

एक्स-रे चित्र में हाइलर छादें ज्यादा प्रमुख दिखायी देते हैं। रक्त वाहिकाओं के निशान बढ़े हुए तथा अल्प स्थायी धब्बे दोनों फुफ्फुसों में छाये होते हैं। एक पूर्ण विकसित केस में जालिकायें (Retriculations) बिछी हुई होती हैं। विशेषकर फुफ्फुसों के मध्य एवं निचले क्षेत्रों में तथा तन्तुमयता के छोटे-छोटे धब्ब बिखरे पड़े होते हैं।

रोग का परिणाम

बहुत से रोगी नाक में माँस बढ़ जाना या पोलिप तथा नाक से संबद्ध साइनस में सूजन से सिर दर्द, जुकाम एवं नाक से मवाद सा आने की शिकायत करते हैं।

कुछ रोगियों में जब रोग पुराना पड़ जाता है खासतौर से समुचित और त्वरित उपचार के अभाव में रोगी के फेफड़ों का आकार बढ़ने लगता है, जिसके फलस्वरूप धीरे-धीरे हृदय के दायें कक्ष भी आकार में बढ़ने लगते हैं। गर्दन की शिरायें उभरने लगती हैं। लीवर का आकार भी बढ़ने लगता है और रोगी अब पेट के ऊपरी भाग में दर्द, अपचन, गैस, कब्ज, पेट फूलना जैसे लक्षण भी बताते हैं। पैरों पर सूजन भी उभर आती है और मूत्र की मात्रा भी कुछ कम हो जाती है। लेकिन सफल उपचार से ऐसा कुछ नहीं होता है।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Open chat
1
Hello 👋
Can we help you?
Call Now Button