थेलेसिमिया क्या है?
थेलेसिमिया एक प्रकार का जन्मजात एवं वंशानुगत एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में होने वाला रक्तदोष से सम्बन्धित रोग है। इस रोग के रोगी के शरीर में हीमोग्लोबिन (Hb) का निर्माण कम होता है तथा खून में विद्यमान रक्तकणों (R.B.C.) की जीवन अवधि घट जाती है, जो घटकर 20 दिन तक ही रह जाती है। यानि 4 माह या 120 दिन की सामान्य अवधि से पहले 20 दिन के लगभग समय में ही लाल रक्तकण नष्ट होने लगते हैं। इस रोग में लाल कणों का आकार सामान्य से छोटा हो जाता है।

Thalassaemia causes

जैसा कि पूर्व में बताया गया है कि यह एक आनुवांशिक (हैरिडेटरी डिजीज) रोग है। बच्चे को यह बीमारी माँ या बाप अथवा दोनों से ही सौगात के रूप में मिलती है। यदि पति और पत्नी दोनों के बीज थेलेसिमिया ग्रस्त हों तो उनकी सन्तान में मेण्डेल के सिद्धान्त के अनुसार इस रोग के उत्पन्न होने की सम्भावना 25 प्रतिशत रहती है। पहले यह बीमारी ग्रीस, इटली, साइप्रस, सिसली इत्यादि देशों में पायी जाती थी। धीरे-धीरे एक दूसरे राष्ट्र पर आक्रमण एवं व्यापार आदि के लिये • परस्पर देशों में आवागमन होने के कारण यह रोग अन्य देशों में भी स्थानान्तरित हो गया। दुर्भाग्य से आज इस बीमारी से ग्रस्त रोगी सम्पूर्ण भारत में मिलते हैं। सिन्धी, पंजाबी, मारवाड़ी, बंगाली, ब्राह्मण और मुसलमान, भानुशाली, लोहाड़ा, भाटिया, जैन, कच्छ के कीटक और पोरबन्दर के ढक्कर इत्यादि जातियों में यह रोग अधिक देखा जाता है। हमारे यहाँ प्राचीन समय से ही असमान गोत्र के लड़के-लड़की के बीच में ही विवाह सम्बन्ध स्थापित करने की परिपाटी चली आ रही है। इसके पीछे एकमात्र उद्देश्य यही था कि उनकी भावी सन्तान में आनुवांशिक या वंशानुगत रोग नहीं हो। जिनमें थेलेसीमिया भी एक है।
Thalassaemia symptoms

इसके लक्षण बचपन से ही शुरू होते हैं। संलापी अल्परक्तता (Haemolytic Anaemias) की मुख्य विशेषताओं (अल्परक्तता, कामला एवं प्लीहावृद्धि) के अलावा त्वचा के ऊपर एक विचित्र वर्णकता (Pigmentation) छायी होती है। चेहरा मंगोल जाति के लोगों जैसा दीखता है। अस्थियों में भी विशिष्ट प्रकार के परिवर्तन होते हैं जो सबसे विकसित रूप में कपाल की अस्थियों में देखे जाते हैं। अस्थि मज्जा अति विकसित हो जाती हैं, उसमें खडी धारियाँ पड़ जाती हैं। तथा उनकी बाहरी और भीतरी पर्तें पतली पड़ जाती हैं। एक्स-रे चित्र में (विशेषकर कपाल के पार्श्व दृश्य में) खड़े केश जैसी छवि दिखायी देती है। शारीरिक वृद्धि थम जाती है। यकृत वृद्धि अवश्य होती है। पैरों में व्रण निकल आते हैं। पित्ताशय में वर्णक पथरिया (Pigmented stones) हो जाती है। प्लीहा, बढ़कर नाभि के समीप स्पर्श होने लगता है। बार-बार रोगी को सर्दी- संक्रमण होता रहता है। -जुकाम इत्यादि का
ANAEMIA- खून की कमी
सारांश

चेहरा पीला और निस्तेज, साँस फूलना, पेट फूला-फूला, भूख न लगना, खाने के प्रति अरुचि और खा लेने से उल्टियाँ हो जाना, निरन्तर ज्वर बना रहना या शरीर का ताप कम होना, हृदय की गति अधिक, सिर बड़ा और शरीर की आकृति छोटी, सिर के मध्य खड्डा सा दिखायी देना, सिर की हड्डियाँ मोटी, भौहों के बीच में नाक का भाग पिचका हुआ होना, ये इस रोग के प्रमुख लक्षण हैं।
हीमोफीलिया- HAEMOPHILIA
रोग की पहचान

रक्त परीक्षा करने पर गम्भीर लघु कोशिका, अल्पवर्णी, अल्परक्तता की विशेषतायें मिलती हैं। सम्पूर्ण लाल रक्त गणना 1 से 3 मिलीयन के बीच होती है। रेटिकुलोसाइटों की संख्या 30 प्रतिशत तक हो सकती है। श्वेत कोशिका गणना थोड़ी बढ़ी हुई होती है। (20,000 प्रति cumm. तक)। रक्त के लेप (Blood smear) का परीक्षण करने पर असमकोशिकता (Anisocytosis) असम आकृति कोशिका, केन्द्रक युक्त कोशिकायें तथा हावेल जैली पिण्ड देखे जाते हैं। इलेक्ट्रोफोरेसिस करने पर, 40% तक शिशु में हीमोग्लोबिन मिलता है ।
रोग का परिणाम
इस रोग के लक्षण जितनी कम उम्र में उपस्थित होते हैं, रोग की घातकता भी उतनी ही अधिक परिलक्षित होती है। ऐसे बालक जीवित नहीं रह पाते हैं। खून की कमी और लाल रक्तकणों के विनाश के कारण बालक का विकास रुक जाता है। अस्थियाँ भी भंगुर हो जाती हैं। ये सभी स्थितियाँ रोगी को कम उम्र में व अकाल में ही मौत के मुँह में धकेल देती हैं। थैलीसिमिया मेजर से ग्रस्त बीमार की मृत्यु प्रायः 5 साल से लेकर 25 साल की उम्र तक हो जाती है।