SCORPION STING-.बिच्छू का काटना

रोग के कारण एवं स्वभाव

बिच्छू खेतों में चूहों या अन्य प्राणियों के विलो ईंटों, पत्थरों तथा कूड़े-करकट के ढेरों में दिन भर छिपे रहते हैं और रात में निकल कर अन्य कीटों पर आक्रमण करते हैं। आदमी पर यह दबाव में आकर भयवश ही चोट करते हैं। बिच्छू के विष में ऐसे विष एल्बुमिन होते हैं जो सीधे तन्त्रिका तंत्र और रक्त पर अपना विषाक्त प्रभाव डालते है। इसकी विषाक्तता सर्प विष से कहीं अधिक भयानक होती है। प्राणघातक बिच्छू के दंश से शरीर का माँस गल-गल कर गिरने लगता है और रोगी की शीघ्र ही मृत्यु हो जाती है।

रोग के विस्तृत लक्षण

वृश्चिक देश में स्थानिक वेदना बड़ी ही तीव्र और गम्भीर प्रकार की होती है। दंश स्थान के चारों ओर एक लाल घेरा सा बन जाता है। जिसमें असादाहक वेदना होती है। यह वेदना दंश स्थान से उठकर ऊपर की ओर फैलती-सी प्रतीत होती है।

बिच्छू का तीक्ष्ण विष प्रारम्भ में अग्नि के समान जलाता है-ऐसा प्रतीत होता है जैसे देश स्थान पर जलता हुआ अंगारा रख दिया गया हो, फिर शीघ्र ही ऊपर की ओर चढ़ता

है। तत्पश्चात् दंश स्थान में स्थिर हो जाता है। दंश स्थान काला पड़ जाता है। वहाँ पर असह्य दाहक वेदना होती है। ऐसा लगता है। जैसे वहाँ पर कोई चीज चुभोई जा रही हो या उसे फाडा जा रहा हो। सार्वदेहिक लक्षणों में सिरदर्द, चक्कर आना, मितली, पसीना आना, पेशीय प्रकंप, ज्वर अथवा ज्वराभाव प्रमुख हैं। काटा हुआ स्थान 1-2 घण्टे में सुन्न पड़ जाता है। दौरे पड़ना व बाद में मरीज कोमा में चला जाता है। 4-6 घण्टे बाद काफी पसीना आता है। मुँह से रक्त मिला हुआ भाग सा आता है।

#तीव्र विष वाले बिच्छुओं के देश में उक्त लक्षणों के अतिरिक्त मुख का सूखना, स्तब्धता, स्फोटों की उत्पत्ति, भ्रान्ति, दाह, ज्वर, बेचैनी और बेहोशी आदि के भी लक्षण पाये जाते हैं। रोमकूपों तथा आँख, नाक और मुँह से काले रंग का रक्त स्रावित होने लगता है और रोगी शीघ्र ही प्राण त्याग देता है।

#देश के 2 से 4 घण्टे के बीच यदि लक्षणों में तेजी से वृद्धि होने लगे तो रोगी के बचने की सम्भावना प्रायः कम होती है।

* तीव्र विष वाले बिच्छुओं के दंश में उक्त लक्षणों के अतिरिक्त मुख का सूखना, स्तब्धता, स्फोटों की उत्पत्ति, भ्रान्ति, दाह, ज्वर, बेचैनी और बेहोशी आदि के भी लक्षण पाये जाते हैं। रोमकूपों तथा आँख, नाक और मुँह से काले रंग का रक्त स्रावित होने लगता है और रोगी शीघ्र ही प्राण त्याग देता है।

* दंश के 2 से 4 घण्टे के बीच यदि लक्षणों में तेजी से वृद्धि होने लगे तो रोगी के बचने की सम्भावना प्रायः कम होती है।

उपचार- दंश के स्थान के ऊपर टूर्नीकेट बाँधे, जिसे हर पाँच से दस मिनट पर कुछ सेकेण्ड के लिये ढीला करें, नहीं तो गेन्सीन की सम्भावना रहती है। यदि आवश्यक हो तो देश स्थान पर चीरा लगाकर रक्त निकालें व ठंडे पानी या बर्फ का पैक लगायें। साथ ही उस पर ताजा तैयार किया हुआ एक बूँद पोटेशियम परमैग्नेट व टारटरिक एसिड को पानी में मिलाकर डालने से दर्द कम हो जाता है। पीड़ा कम करने के लिये स्थानीय रूप से संज्ञाहर द्रव्यों जैसे इन्जेक्शन जैसीकेन (Inj. Gesicain) 2% का 2 मिली० अथवा इन्जे० इमेटीन हाइड्रोक्लोराइड (Inj. Emetine Hydrochloride) का अन्तः संचरण करें। दंश स्थान को हिलायें डुलायें नहीं। पेथीडीन (Pethidine) का माँसपेशीगत इन्जेक्शन दें। एनाल्जिन (Analgin) अथवा नोवाल्जिन (Novalgin) की एक-एक टिकिया दिन में 3 बार दें। पेशीय उद्वेष्टन को कम करने के लिये कैल्शियम ग्लूकोनेट (Calcium Gluconate) के 10% सोल्यूशन को 10 एम. एल. की मात्रा में धीरे-धीरे आई. वी. प्रविष्ट करें। फुफ्फुसीय शोथ से बचाव के लिये एट्रोपीन’ 2 एम. जी. का S/C इन्जेक्शन दें देश के अनुसार विशिष्ट औषधि ( एण्टीवेनम Antivemom) जहर को निष्फल करने के लिये दिया जा सकता है। अति गम्भीर हालत में (कोलेप्स कर रहे रोगी) हाइड्रोकार्टीजोन युक्त ग्लूकोज सैलाइन शिरा द्वारा दें ताम्रवर्ण बिच्छू के काटने पर हृदय की रक्षा की ओर विशेष ध्यान दें।

अनुभव के मोती

* चूना और नौसादर (लाइकर अमोनिया फोर्ट) अथवा हड़ताल और नौसादर अथवा आक का दूध अथवा पलास के बीजों को आक के दूध में पीसकर दंश स्थान पर लगायें। अथवा * रीठे को चबायें, महीन पीसकर दंश स्थान पर लगायें। गाय का घी और सेंधा नमक मिलाकर पिलायें और दंश स्थान पर भी लगायें।

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