परिचय

इस रोग में मरीज के कान से स्राव निकलता रहता है। अधिकांशतः बच्चों के कान बहते देखे जाते हैं। युवा वर्ग के स्त्री-पुरुषों का भी कान बह सकता है। कान से बहने वाला स्राव पानी जैसा पनीला अथवा पीव जैसा पीले रंग का होता है।
रोग के प्रमुख कारण

स्कारलैट फीवर, खसरा, काली खाँसी आदि संक्रामक रोगों में यह 5-15 प्रतिशत हो जाता है। यह रोग आंतसक, टी. बी., कंठमूल ग्रन्थि शोथ, पुराना जुकाम और एडिनोइड्स के रोगियों को अधिक होता है। जब कान का पर्दा फटा हुआ हो, उस समय कान में पानी चले जाने से यह रोग हो जाता है । दीर्घकालीन मध्यकर्ण शोथ, कान में फुंसी, चोट, ट्यूमर, पोलिप, कान को कुरेदने, तीव्र मध्यकर्ण शोथ, ओटोमाइकोसिस, वायरल ओटाइटिस इक्सटर्नी आदि कारणों से यह रोग हो सकता है।
रोग के प्रमुख लक्षण

कान में भारीपन, कान में दर्द के साथ कान से लगातार या रुक-रुककर स्राव होता रहता है। यदि स्राव पस वाला होता है तो रोगी को बुखार भी रहता है। कान से आवाज आते रहना, सुनने की शक्ति कम हो जाना, सिरशूल (Headache), पलकों का कभी-कभी सूज जाना, कर्ण प्रणाली की सूजन आदि लक्षण होते हैं। जब पीव खून आने लगती है तब ज्वर और सिरदर्द आदि लक्षण शान्त हो जाया करते हैं।
रोग की पहचान

उपरोक्त लक्षणों के आधार पर निदान में कोई कठिनाई नहीं होती है। इसमें निम्न Investi gation किये जाते हैं-
1. ओटोस्कोपी (कान की जांच)
2. स्मीयर, कल्चर और डिस्चार्ज की बैक्टीरियोलॉजिकल जांच, एंटीबायोटिक संवेदनशीलता.
3. यदि घातकता का संदेह हो तो डिस्चार्ज की एक्सफ़ोलीएटिव सिस्टोलॉजी।
4. श्रवण परीक्षण.
5. कान की रेडियोलॉजिकल जांच.
6. बायोप्सी.
7. एनेस्थेटिक फिटनेस के लिए नियमित जांच।
रोग का परिणाम

कान के स्त्राव से दुर्गन्ध निकलती है। कभी- कभी यह दुर्गन्ध इतनी संडासयुक्त होती है। कि रोगी के पास बैठना भी कठिन हो जाता है। कर्णस्राव की उचित चिकित्सा व्यवस्था यदि न की जाये तो यह कान के कई रोगों को जन्म देकर रोगी को भयंकर खतरे में डाल देता है। अतः कर्णस्राव की जितनी जल्दी हो सके, चिकित्सा व्यवस्था करनी चाहिये। यदि कान लम्बे अर्से तक बहता रहे तो कान गम्भीर संक्रमण का शिकार हो सकता है।