परिचय

किसी एक प्रधान या उसकी सहवर्ती कई स्नायुओं में जब प्रदाह पैदा हो जाता है तब उसे स्नायु प्रदाह कहते हैं। इसमें दर्द’, ‘चक्कर’ और ‘चिलक’ आदि विकार हो जाया करते हैं।
हाथ पैर आदि प्रान्त भागों तक जाने वाली वात तंत्रिकायें संज्ञावह, चेष्टावह, ऐच्छिक तथा अनैच्छिक सूत्रों के मिलने से बनी हैं। इसमें से अनेक तन्त्रिका शोथ को बहुतंत्रिकाशोथ (Polyneuritis) कहते हैं तथा प्रान्तीय तन्त्रिका शोथ को पेरीफेरल न्यूराइटिस (Peripheral neuritis) कहते हैं।
रोग के प्रमुख कारण

यह रोग किसी बाहरी या आभ्यान्तर विष (Bacterial or viral infection) के दुष्प्रभाव के परिणामस्वरूप से होता है। वैसे संखिया, लैड, मद्य तथा कार्बन मोनोऑक्साइड आदि के चिरकाल तक शरीर में जाते रहने से या मधुमेह, गठिया जनित अथवा कैंसर जनित किसी विष से, आँत में उत्पन्न किसी विष शरीर में विद्यमान पूयविष (Sepsis), मलेरिया आदि विष से। न्यूनताजन्य रोग जैसे-बेरी-बेरी, वृद्धावस्था में धमनी काठिन्य से न्यूराइटिस उत्पन्न हो जाती है।
रोग के प्रमुख लक्षण
वैसे वह रोग सभी अवस्थाओं में हुआ करता है परन्तु 20-40 वर्ष की अवस्था में यह सर्वाधिक रूप से पाया जाता है। इस रोग में सबसे पहले हाथ पैर आदि भागों में सुस्ति (Namitness) चिमचिनाहट, झनझनाहट अथवा स्पर्शमात्र से कष्ट आदि लक्षण प्रकट होते हैं। हाथ, पैर, जाँघ, बाहु आदि में वेदना के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। रात्रि में विश्राम करते समय पैरों, पिण्डलियों आदि में उद्वेष्टन (Cramps) की वेदना होती है। पिंडलियों व पादतल की माँसपेशियों को दबाने से उनमें दर्द का लक्षण भी मिलता है अथवा हाथ पैरों में अधिक गर्मी अथवा शीतलता का अनुभव होता है। इसके अतिरिक्त रोगी को चक्कर भी आते हैं और कब्ज बराबर बना रहता है। अंत में अंगुलियों की माँसपेशियों के क्षीण होने पर व्यक्ति में काम करने तथा लिखने की शक्ति घट जाती है।
Note- इस रोग में निम्न शाखाओं (पैरों) में निर्बलता विशेष रूप से होती हैं। शाखागत् नाड़ियों में विद्यमान पोषक सूत्रों के क्षीण हो जाने से हाथ-पैर आदि की त्वचा का पोषण कम हो जाता है जिससे त्वचा, नाखूनों तथा बालों का पोषण कम हो जाता है। इस अवस्था में हाथ पैरों में व्रण हो जाने पर उन व्रणों का रोपण देर से होता है। मधुमेह के रोगी के पैरों ऐसा व्रण प्रायः देखा जाता है। पैरों की अँगुलियों, कान आदि अवयव या तो अधिक लाल और गर्म लगते हैं अथवा अधिक ठंडे लगते हैं (वैसोमोटर सूत्रों में क्षीणता हो जाने पर) ।
रोग की पहचान

रोग उत्पन्न होने के कारणों और स्थानिक लक्षणों से इसकी पहचान सरलता से हो जाती है।
रोग के परिणाम

वैसे यह रोग साधारण होता है और प्राणों की कोई खतरा नहीं होता है, पर रोगी को तकलीफ बहुत होती है। कभी-कभी शोध वाले स्थान पर ‘फालिज’ भी मार जाता है।