परिचय

यह दूसरे रोग का लक्षण है। स्नायुओं के दर्द के कारण पैर के कितने ही स्थानों में टपक या खोंचा मारने के समान या जलन की तरह दर्द होता है।
रोग के प्रमुख कारण

इस प्रकार का शूल सूजन, शोथ, प्रदाह के कारण अथवा तंत्रिकाओं की कार्य प्रणाली में व्यवधान या दोष पैदा हो जाने से होता है। नवीनतम शोधों के अनुसार यह रोग वंश परम्परा की देन भी होता है। ऋतु परिवर्तन, मलेरिया, वात या गठिया, गर्मी रोग, किसी अंग विशेष से अधिक कार्य लेना, चोट या सर्दी का लगना, शराब पीना आदि कारणों से यह रोग होता है। लम्बे समय तक रोगों को भोगना, रोगों से उत्पन्न कमजोरी, गठिया रोग का लम्बे समय तक चलना, कैंसर, बहुमूत्र, दंत क्षय (विशिष्ट कारण) भी इसके कारण माने गये हैं।
रोग के प्रमुख लक्षण

दर्द जिस तंत्रिका (नर्वस) में होता है उसमें प्रमुख रूप से सबसे पहले झुनझुनी सी उठती है। तत्पश्चात् एकाएक वह स्थान सुत्र पड़ जाता है। यह स्थिति काम करते-करते अथवा बैठे या सोते समय भी हो सकती है। नाड़ी जहाँ तक जाती है वहाँ तक वेदना, झुनझुनी या शून्यता का आभास होता है। वेदना कई प्रकार की होती है। कुछ रोगी झुनझुनी या शून्यता अथवा कुछ वेदना का अनुभव करते हैं। सभी लक्षण एक साथ भी मिल सकते हैं। उग्र स्वरूप का रोग बड़ा कष्टकारक होता है। रोगी को ऐसा लगता है कोई भाला भोक रहा हो, दर्द के स्थान को धारदार हथियार से काटे जा रहा हो। दर्द के स्थान पर फड़कन और टपकन भी होती है। दर्द कुछ सेकेण्डा से लेकर कुछ मिनट या फिर कुछ घण्टों तक भी हो सकता है। दर्द का स्थान बदलता भी रहता है। रोगी को अक्सर कब्ज की शिकायत रहती है। कई-कई दिन तक मल नहीं उतरता है। छाती के स्थान पर दर्द होने से घबराहट, बेचैनी तथा साँस में तकलीफ होती है। रोगी को हरारात भी संभव है।
रोग की पहचान

नाड़ी शूल कई प्रकार का होता है जैसे चेहरे का स्नायुशूल, अधकपारी का दर्द, गृध्रसी (कमर के स्नायु का दर्द) आदि। आमाशय, हृदय, यकृत, डिम्बाशय तथा अण्डकोष के भी स्नायुओं में दर्द हो सकता है। इनमें चेहरे का स्नायुशूल और सियाटिका का शूल अधिक होता है।
रोग का परिणाम

दर्द दौरे के रूप में होता है जो कुछ सेकेण्डी से लेकर घण्टों तक रह सकता है। दर्द पूर्ण रूप से शान्त हो जाता है अथवा कुछ न कुछ बना रहता है।