परिचय

आम बोलचाल की भाषा मे इसको गला बैठ जाना’ कहा जाता है। इस रोग से ग्रस्त रोगी जब बोलता है तब उसके कण्ठ से मरायी हुई भारी आवाज निकलती है। रोगी कठिनाई से अपनी आवाज को बाहर निकालता है। रोगी धीमी गति से आवाज कण्ठ से नहीं निकाल पाता। रोगी को तीव्र गति से बोलना पड़ता है तब भी आवाज ठीक से नहीं निकल पाती। बोलते समय रोगी की आवाज फट जाती है। स्वर कभी ऊँचा तो कभी नीचा हो जाता है।
रोग के प्रमुख कारण

चीखने चिल्लाने, अधिक देर तक गायन करने, उच्च स्वर में क्रोध करने से ठंडे के ऊपर एकाएक गर्म पदार्थ खा-पी लेने, गर्म के ऊपर एकाएक ठंडा पदार्थ खा-पी लेना, अत्यधिक सर्दी का प्रकोप हो जाने से, वायु प्रणाली का संकीर्ण हो जाना, धूल, धुआँ, मिट्टी, रुई के बारीक कण, श्वासनली अथवा स्वरयंत्र में जाकर चिपक जाने से, वर्षा में अत्यधिक भीगने, मूँगफली खा लेने के बाद एकदम ठंडा पानी पी लेने से, फ्रिज का पानी पीने के बाद एकाएक तीव्र धूप में निकल जाने से हिस्टीरिया रोग आदि अनेक कारणों से यह रोग पैदा हो जाता है।
रोग के प्रमुख लक्षण

रोगी की आवाज फटी-फटी सी निकलती है। रोगी जब बोलता है तब शब्द स्पष्ट उच्चारित न होने के कारण समझ में नहीं आते। उसका स्वर कभी ऊँचा तो कभी नीचा हो जाता है। प्रायः स्वर रूखा-सूखा तथा कर्कश होता है। रोगी को स्वयं की भी आवाज बुरी लगती है। 1 वह चाहते हुए भी अपने कंठ से सही-सही एवं स्पष्ट शब्दों का उच्चारण नहीं कर पाता । रोगी बोलते-बोलते अपना गला पकड़ लेता है। रोगी बार-बार कण्ठ खखारता है। उसे गले में सुरसुराहट महसूस होती है। उसकी दबी-दबी खाँसी उठती रहती है। कोई-कोई रोगी सर्दी-जुकाम और खाँसी के शिकार हो जाते हैं। बोलते समय रोगी को आवाज बाहर निकालने में जोर लगाना पड़ता है।
नोट
इस रोग में कभी-कभी रोगी की आवाज बहुत भारी हो जाती है।