परिचय

स्त्री में प्रतिमाह मासिक धर्म या आर्तव साब का न होना या एक बार होकर बन्द हो जाना अनार्तव कहलाता है। इसे ऋतुरोध या नष्टार्तव भी कहते हैं।
रोग के कारण

खून की कमी, मैथुन दोष, माहवारी के समय (In M. C. Period) बर्फ जैसी अतिशीतल वस्तुओं का सेवन, सर्दी लगना, पानी में लम्बे समय तक भीगना, ज्यादा घूमना, अत्यधिक दुःख एवं क्रोध, मानसिक उद्वेग, मासिक धर्म के समय खाने-पीने में असावधानियों आदि कारणों से यह रोग हो जाता है।

मासिक धर्म में चार अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ- पिट्यूटरी ग्रन्थि, अवटु, (थाइरॉयड) ग्रन्थि, अधिवृक्क ग्रन्थियाँ और डिम्ब ग्रन्थियाँ भाग लेती है। इनमें से किसी में भी कोई भी विकृति हो जाने पर अनार्तव हो जाता है।
रोग के लक्षण

गर्भाशय के स्थान पर अक्सर पेडू के नीचे दर्द, भूख न लगना, वमन या मितली, मलावरोध, स्तनों में दर्द, दिल का धड़कना, साँस लेने में तकलीफ, दमबंद होने जैसा लगना, कान में speeling तरह-तरह की आवाजे आना, थकावट, नींद न आना, जरायु प्रदाह, शरीर के किन्हीं- किन्ही हिस्सों में सूजन (Swelling). मानसिक विकृति, दौरे पड़ना (Hysteria). कमर दर्द, हाथ-पैर एवं समस्त वदन में दर्द एवं थकावट आदि लक्षणों का होना।
* जिस स्त्री को पहले माहवारी हो रही थी और अब नहीं हो रही है या एक लड़की 16 साल की हो गई है और माहवारी नहीं शुरू हुई है तो अनार्तव या एमेनोरिया कहते हैं। बहुत-सी लड़कियों के लिये यह एक सामान्य बात है जो आगे कभी भी माहवारी शुरू कर सकती है या फिर जिस औरत की आयु 40 वर्ष से ज्यादा है वह गर्भवती है या दूध पिला रही है उन्हें भी ऐसा हो सकता है। हालांकि बाकी औरतों के लिये ऐसा होना अण्डाशय या गर्भाशय की बीमारी जैसे गम्भीर खून की कमी, आयोडीन की कमी, दिमागी बाधा या तपेदिक अथवा भावानात्मक बाधाएँ या दवाओं आदि का दुष्प्रभाव हो सकता है।
ज्यादातर लड़कियों को 11 से 16 वर्ष की आयु में पहली बार मासिक धर्म शुरू होता है। इसका मतलब यह है कि अब वे इतनी बड़ी हो गई है कि गर्भवती हो सके।
मासिक धर्म सामान्य तौर पर करीब 28 दिन के बाद आता है लेकिन यह अवधि 22 दिनों या 35 दिनों की भी हो सकती है। यह अवधि 3 से 6 दिन तक की रहती है। इसमें लगभग आधा कप खून नष्ट होता है।
नोट- मासिक धर्म का न आना ही एमेनोरिया कहलाता है।
अनार्तव तीन प्रकार का होता है-
1. प्राकृतिक अनार्तव (Natural Amenorrhoea) 2. शरीर वृत्तिक अनार्तव (Physiological Amenorrhoea)
3. विकृतिजन्य अनार्तव (Pathological Amenorrhoea)
प्राकृतिक अनार्तव (Natural Amenorrhoea)- यौवनारम्भ (यानि 11 वर्ष की आयु से पूर्व तथा रजोनिवृत्ति (45 वर्ष की आयु के पश्चात् आर्तव साव न होना प्राकृतिक अनार्तव होता है। शरीर वृत्तिक अनार्तव (Physiological Amenorrhoea) गर्भावस्था तथा दुग्धावस्था (शिशु) के जन्म के पश्चात् कुछ मास का वह काल जब मीं बच्चे को अपना दूध पिलाती है) के दौरानआर्तव खाद न होना शरीर वृतिक अनार्तव होता है।
विकृतिजन्य अनार्तव (Pathological Amenorrhoea)- यदि स्त्री में प्राकृतिक और शरीर वृत्तिक अनार्तव नहीं है और परीक्षणों द्वारा गर्भावस्था के न होने का पता चल जाता है तो ऐसे अनार्तव को किसी रोग का लक्षण समझा जाता है और यह विकृतिजन्य अनार्तव कहलाता है।
यह अनार्तव दो प्रकार का होता है-

1. प्राथमिक विकृतिजन्य अनार्तव (Primary pathological amenorrhoea)
2. द्वितीयक विकृतिजन्य अनार्तव (Secondary pathological amenorrhoea)
1. प्राथमिक विकृतिजन्य अनार्तव (Primary Pathological Amenorrhoea) जब लड़की की यौवनारम्भ की आयु (18 वर्ष) व्यतीत हो जाने पर भी मासिक धर्म नहीं होता तो ऐसा अनार्तव प्राथमिक विकृतिजना अनार्तव कहलाता है। इसके निम्नलिखित कारण हो सकते हैं-
A. अछिदी योनिच्छद (Imperforate Hymen) अर्थात् जन्म से ही हाइमन (Hymen) में छिद्र का न पाया जाना जिससे होकर प्रतिमाह आर्तव खाद होता है। इस अवस्था को क्रिप्टोमेनोरिया (Cryptomenorrhoea) कहा जाता है। गर्भाशय पूर्ण विकसित रहता है और प्रतिमाह ठीक प्रकार से मासिक धर्म होता है, परन्तु बाहर निकलने के लिये रास्ता बन्द होने के कारण रक्त, योनि गर्भाशय ग्रीवा, गर्भाशय और डिम्ब वाहिनियों में भरता चला जाता है जिससे रक्त का दबाव पड़ने से लड़की को दर्द महसूस होने लगता है तथा पेडू में उभार आ जाता है।
B. शिशु गर्भाशय (Infantile Uterus) कुछ युवतियों में गर्भाशय इतना छोटा होता है कि उसे शिशु गर्भाशय कहते हैं। इसमें एण्डोमीट्रियम या तो होती ही नहीं है या होती है तो उसने डिम्बग्रन्थियों के अन्तः खायों से उत्पन्न होने वाले परिवर्तन नहीं हो पाते जिसके कारण मासिक धर्म नहीं होता। ऐसी युवतियों में द्वितीयक लैंगिक लक्षणों का अभाव होता है।
C. डिम्ब ग्रन्थियों का जन्म से ही विकसित न होना-डिम्ब ग्रन्थियों के जन्म से विकसित न होने से इनसे ईस्ट्रोजन एवं प्रोजेस्टरोन हार्मोन उचित मात्रा में नहीं निकल पाते जिसके फलस्वरूप एण्डोमेट्रियम में प्रतिमाह होने वाले परिवर्तन उत्पन्न नहीं हो पाते। अतः मासिक धर्म नहीं हो पाता।
D. पिट्यूटरी ग्रन्थि का अर्द्ध विकसित रहना-इस ग्रन्थि के स्रावों की कमी होने से गर्भाशय की एण्डोमीट्रियम में मासिक परिवर्तन नहीं होते जिससे अनार्तव हो जाता है।
E. थायरॉइड अल्पक्रियता (Hypothyroidism) थायराइड ग्रन्थि से उचित मात्रा में साथ नहीं निकलता है जिसके फलस्वरूप पिट्यूटरी ग्रन्थि भी अपना कार्य ठीक प्रकार से नहीं कर पाती और अनार्तव हो जाता है।
2. द्वितीयक विकृतिजन्य अनार्तय
मासिक धर्म (M.C.) एक बार शुरू होकर जब बन्द हो जाता है तो यह द्वितीयक विकृतिजन्य अनार्तव कहलाता है। इसके निम्नलिखित कारण है-
A. गर्भाशय की विकृति विस्फारण एवं आयुरण (D&C), गर्भाशय ग्रीवा दहन (Cetery) करते समय यदि गर्भाशय मुख, गर्भाशय ग्रीवा अथवा गर्भाशय की एण्डोमीट्रियम में कोई क्षति पहुँचती है तो अनार्तव हो जाता है। एण्डोमीट्रियम का कोई रोग, मज एण्डोमीट्रियम शोथ, सैप्टिक एण्डोमीट्रियम शोध आदि में अनार्तव हो जाता है। अनार्तव के कुछ अन्य कारण भी-
सार्वदेहिक कारण

कुपोषण, खून की कमी, शारीरिक कमजोरी, जीर्ण रोग, जैसे तपेदिक, जीर्ण मलेरिया, कालाजार, मधुमेह आदि। मोटापा, कोई तीव्र ज्वर, औषधि या मद्य का व्यसन, कैंसर आदि अनार्तव के सार्वदेहिक कारण है।
मानसिक कारण
चिंता, भय, शोक, सदमा, अचानक बहुत बड़ा झगड़ा हो जाना, किसी निकट सम्बन्धी की मृत्यु हो जाना अथवा कोई शोकपूर्ण घटना, एकाएक वातावरण, रहन-सहन की परिस्थितियों में हेर-फेर हो जाना आदि कारणों से अनार्तव हो जाता है।
रोग की पहचान
हाथ-पैर, मस्तक में दर्द, हाथ-पैरों में जलन, कमर और पेट में दर्द, जलन, मानसिक सुस्ती, थकावट आदि से इस रोग को पहचान सकते हैं।
इसके अतिरिक्त रोगी के इतिहास, रोगिणी की आयु, सर्जिकल इण्टरफेरेनस, द्वितीयक एमेनोरिया से पहले मासिक धर्म का इतिहास, पारिवारिक इतिहास, आमस्ट्रेटिव इतिहास, द्वितीयक सैक्स करेक्टर एवं प्रजनन अंगों की जाँच आदि से इस रोग को पहचाना जाता है।
रोग के परिणाम
यदि ठीक समय पर इसका उपचार न हो तो इससे हिस्टीरिया बेहोशी सन्यास अवसाद, वायु उदासी (गैलनकोलिया) दृष्टि शक्ति का कम पड़ना आदि अनेक प्रकार के रोग हो जाया करते हैं।