परिचय

इसमें नाक तथा गले के बीच में एक गाँठ सी बन जाती है। इसमें रोगी कुछ कम सुनने लगता है। इसे ‘कण्ठशालूक’ भी कहते हैं।
रोग के कारण

यह रोग संक्रामक रोगों के बाद होता देखा जाता है। जिन संक्रामक रोगों के कारण यह रोग होता है, वे हैं-खसरा, स्कारलेट फीवर, रोहिणी, कण्ठ रोहिणी, डिफ्थीरिया, गल रोहिणी, गलघोंटू, काली खाँसी, कुक्कुर खाँसी, इन्फ्लूएन्जा आदि । विस्फोटक ज्वर, माता का प्रकोप आदि के बाद भी देखा जाता है। सर्दी-जुकाम इसका मूल कारण है । वंशगत कारण भी शोध अध्ययन से ज्ञात हुए हैं। मौसम परिवर्तन, अत्यधिक ठंड अथवा ठंडे प्रदेशों में रहना इसके सहायक कारण है।
रोग के लक्षण

यह रोग लड़कों की अपेक्षा लड़कियों को अधिक होता है। इसमें रोगी नाक से श्वास नहीं ले पाता। वह नाक की अपेक्षा मुँह से साँस लेता है। रोगी सोते समय भी मुँह से साँस लेता है। सोते जागते रोगी का मुँह खुला रहता है। नाक से पतला स्राव निकलता है। साइनोसाइटिस के लक्षण होते हैं। रोगी की आवाज नाक से आती है। बार-बार रुक-रुक कर कान में दर्द होता है। कान से पानी भी निकलने लगता है। खाने में दर्द होता है. इसलिये बच्चा खाना काफी देर में खत्म कर पाता है। मुँह खुला रखने से लार टपकती है। गले में खराश बनी रहती है। छाती कबूतर समान हो जाती है।
नोट – इस रोग में छाती चिपटी, दाँत सटे हुए या एक दूसरे पर चढ़ जाते हैं।
रोग की पहचान

रोग की पहचान लक्षणों के आधार पर हो जाती है। इसके अतिरिक्त पोस्टीरियर राईनोस्कोपी, ‘एक्स-रे’, ‘डिजीटल पालपेशन’, जनरल अनस्थीसिया देकर परीक्षण आदि द्वारा रोग की जाँच की जाती है।
रोग का विभेदक निदान

इस रोग का भेद सही निदान के लिये निम्न रोगों से करना चाहिये-
1. नेजल ऑब्स्ट्रक्शन
2. आर्थोडोन्टिक एब्नोरमेलिटी
3. थोर्न वाल्डट्स डिजीज ।