परिचय-

बालपक्षाघात (पोलियो) एक संक्रामक रोग है जो कहीं-कहीं तो छिटपुट रूप का होता है तथा कहीं-कहीं पर यह संक्रामक रूप धारण कर लेता है। इस रोग में प्रेरक तंत्रिका कोशिका (Motor neurone cells) पूर्णतया निष्क्रिय हो जाते हैं और उससे सम्बन्धित माँसपेशियाँ शिथिल हो जाती हैं। इसमें मुख्य रूप से एक या दोनों पैरों में पक्षाघात का प्रभाव पड़ता है। इस रोग के कारण बच्चा जीवन भर के लिये विकलांग बनकर रह जाता है।
रोग के प्रमुख कारण

यह रोग एक छनित योग्य तन्त्रिकाजन्य विषाणु (फिल्टरेबुल न्यूरोट्रोफिक वाइरस) के शरीर में प्रविष्ट हो जाने के कारण हो जाता है।
यह रोग दो से पाँच वर्ष के बच्चों को होता है। इसके अन्तर्गत स्पाइनल कार्ड के अग्रिम हार्न सैल में डीजनरेटिव चेन्जेज होते हैं जिसके कारण मोटर न्यूरोन सैल्स पूर्णतया निष्क्रिय हो जाते हैं और उससे सम्बन्धित माँसपेशियाँ शिथिल हो जाती हैं।
यह रोग अधिकतर ग्रीष्म ऋतु में फैलता है लेकिन छुटपुट रोगी पूरे साल रहते हैं।
#दरिद्र और गन्दे बालको को यह रोग अधिक होता है।
रोग के प्रमुख लक्षण

इसके प्रारम्भिक लक्षणों में ज्वर, सिर दर्द, शरीर में दर्द, गले में कष्ट आदि लक्षण दिखायी देते हैं। ये लक्षण प्रारम्भिक रूप में जुकाम के लक्षणों के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। आँतों में इसके दुष्परिणाम से वमन, अतिसार तथा मलावरोध आदि लक्षण दिखायी देते हैं। प्रारम्भ में ज्वर, 102 से 103 डिग्री तक रहता है जो 2-3 दिनों में स्वतः शान्त हो जाता है। इसके बाद तीव्र शिरःशूल तथा तन्द्रालुता रहती है। रोगी उदासीन दिखायी देता है तथा स्पर्श और प्रकाश उसको सहन नहीं होते। कमर तथा ग्रीवा की माँसपेशियाँ स्तम्भित दिखायी देती हैं। इसके बाद मूत्राघात और पक्षाघात के लक्षण दिखायी द लगते हैं। जो कि रोग के प्रारम्भ होने के दूसरे, तीसरे, चौथे या पाँचवें दिन से प्रातम होते हैं। एक या दोनों पैरों में का प्रभाव पड़ता है। अक्रान्त भाग की स क्रियायें प्रायः लुप्त हो जाती है।
रोग की पहचान
अगवध से पूर्व पोलियो का रोग निर्णय एक कठिन कार्य है परन्तु ज्वर की अवस्था में अधिक बेचैनी और पेशियों में वेदना हो तो इस रोग का संदेह करना चाहिये। पोलियो में बेहोशी जैसी अवस्था पायी जाती है। साथ ही मैनेजियल सम्बन्धी चिन्ह भी पाये जा सकते हैं। C. S. F. का परीक्षण भी रोग निर्णायक होता है।
रोग का परिणाम
श्वासावरोध, मलमूत्र अवरोध, मूर्च्छा, आक्षेप, वमन आदि उपद्रव मुख्यतः तीव्र स्वरूप का आक्रमण होने पर होते हैं। इस रोग में मृत्यु संख्या बहुत कम होती है पर साथ ही साथ इस बीमारी से शत-प्रतिशत रोग मुक्ति होने वालों की संख्या भी बहुत कम होती है। यह रोग कुछ न कुछ अपना असर छोड़ ही जाता है ।